व्यथा

 नेमत का नतीजा है

भरे हैं उनके हाथ, गोद और माँग.

वे किसी के सर ठीकरा नहीं फोड़ते

कि खाली है उनका पेट.

उनके सामने हैं हरे पत्तें,

साड़ी में, जमीन पर, आँखों में;

अफसोस कि कपड़ों की सिलवटें,

चेहरे की रेखाएँ,

और उनकी भूख स्थायी है.

नंगे पाँव वालों की चप्पलें नहीं घिसती,

जिन हथेलियों में ज्यादा कुछ लिखा भी नहीं,

घिसती हैं उनकी लकीरें.

सुनी नाक और कान में खोंस लेती हैं,

वे गुड़हल का कोई तिनका.

उन औरतों को बालों में कंघी की नहीं

बल्कि माथे पर आँचल की परवाह होती है,

बच्चे जिद्दी कम भूखे ज्यादा पाए गए.

बेतरतीबी शौक-शौकत की ही नहीं

मजबूरी की भी ताईद करती है.

वहाँ के बच्चों ने डेढ़ साल तक दूध पीया,

औरतों के सिकुड़े सीने और

पुरुषों की खाली जेबों की ये इंतहा है.

उम्मीद और उनींदी से सराबोर

उनकी आँखों में अपने बच्चे के लिए सपने होते हैं;

ठीक उसी वक़्त वही बच्चा देखता है

सपने में बिस्कुट का एक पैकेट.

हस्तांतरण की कवायद उनकी सम्पत्ति पर तो नहीं

उनके फटे कपड़ों पर जरूर लागू होती है.

मौजूद हैं ये चौतरफ,

आस-पास से लेकर दूर-दराज तक.

दुनिया जब घूम रही है सूरज के चारों ओर,

ये घूम रहे बेतहाशा

हर तरफ, हर पहर और कहलाये घुमंतू.

इनके हिस्से का देश तब कभी हासिल होगा

जब सियासी चुनाव का मुद्दा

मजहब नहीं, रोटी होगा.

©अमित

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Wednesday, 08 May 2024