बाँसवन में बाँसुरी बजने लगी
बात चैता ने जाने क्या कही।

बीतता फागुन कहे कुछ कान में
राग बासंती अभी भी मान में ।

कनुप्रिया को घेरता कान्हा अवश
बाँसुरी करती रही मनुहार बस ।

फाग का ढप आज साधे मौन है
और सुर मादल कहे वह कौन है।

तभी कुछ मादक हवा ऐसी बही
बात चैता ने न जाने क्या कही ।

चीड वनका चीर हर कान्हापवन
साल रक्खे लाज कर कुछ-कुछ जतन।

प्रीत की जो आग फागुन में लगी
बाँस वन में चैत में ऐसी पगी ।

हो गयी रसलीन है अब रसप्रिया
पूछती फिरती कहो यह क्या हुआ ?

आम की डाली तभी बौरा गयी
बात चैता ने अभी ऐसी कही।

बाँस वन में बाँसुरी बजने लगी
बात चैता ने न जाने क्या कही।

प्रेमानन्द दास (२५८ / १९६५-७१ )